‘यशोधरा’ काव्य का भाव पक्ष एवं कला पक्ष

मैथिलीशरण गुप्त जी द्विवेदी युग के प्रमुख कवि थे। उन्होंने ‘यशोधरा’ में गाँधी जी के व्यावहारिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। उनका जीवन-सन्देश वैयक्तिक जीवन को परिष्कृत करने वाला और लोक में वासना, कामना और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने का दिशा-निर्देश करने वाला है। ‘यशोधरा’ काव्य में गौतम बुद्ध की पत्नी यशोधरा की विरह-वेदना के साथ-साथ अनेक दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन भी हुआ है जो इस खंडकाव्य को एक महत्वपूर्ण रचना बनाते हैं | जहाँ ‘यशोधरा’ काव्य का भाव पक्ष उदात्त, मार्मिक व उद्देश्यपरक है वहीं इसका कला पक्ष अत्यंय सशक्त, सरस एवं आकर्षक है |

‘यशोधरा’ काव्य का भाव पक्ष

'यशोधरा' काव्य का भाव पक्ष
‘यशोधरा’ काव्य का भाव पक्ष

यशोधरा काव्य की भावपक्षीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं —

(1) छायावादी शिल्प का आभास

प्रस्तुत काव्य में छायावादी शिल्प का आभास है। केवल शिल्प की दृष्टि से यह कवि की अब तक की सम्पूर्ण कृतियों में श्रेष्ठतम है। इसमें उक्ति को चमत्कृत एवं सप्रभाव बनाने के लिए अनेक युक्तियों का सफल व्यवहार हुआ है। भाव के स्थान पर व्यक्ति का और व्यक्ति के स्थान पर भाव-ग्रहण, प्रतीक-योजना, व्यंजनापूर्ण विशेषणों का प्रयोग, सटीक अप्रस्तुत का चयन आदि बड़े कौशल से हुए हैं और मानवीकरण से तो यशोधरा आद्यन्त आपूर्ण ही है।

(2) नायिका प्रधान काव्य

‘यशोधरा’ नायिका प्रधान काव्य है और इसकी चरित्र-सर्जना में कवि ने पर्याप्त परिश्रम किया है। इसके प्रणयन का मूलोद्देश्य भी यही था। गौतम तो परम्परा से एक उदात्त चरित्र के रूप में प्रतिष्ठित हैं, यथासंभव उनके इसी रूप की रक्षा का प्रयत्न यशोधरा में हुआ है। यद्यपि कवि ने गौतम के विश्वासों एवं सिद्धान्तों को असत्य ठहराया है, तथापि उनके चिरप्रसिद्ध रूप की रक्षा के लिए अंत में यशोधरा और राहुल को उनका अनुगामी बना दिया है। यशोधरा को भक्तगण भूल ही चले थे, उसके माध्यम से गुप्त जी ने अपनी नारी भावना का अंकन किया है।

(3) यशोधरा और गाँधीवाद

महात्मा गाँधी का नारीदर्शन ‘यशोधरा’ में गुप्त जी की अभिव्यक्ति का वांछित लक्ष्य रहा है। यशोधरा के चरित्र में गुप्त जी ने जैसे गाँधीजी द्वारा प्रेरित प्रस्तावित तमाम आदर्शों को मूर्त कर दिया है। यशोधरा का बाल-विवाह नहीं होता। पहले उसकी शिक्षा-दीक्षा होती है, सब तरह से उसे योग्य बनाया जाता है, उसके लिए योग्य वर का निर्वाचन किया जाता है और तब उसके दाम्पत्य-जीवन का प्रारम्भ होता है। वह कपिलवस्तु के राजभवन में बिना पूँट काढ़े ही पूर्ण आश्वस्त भाव से आती है। वह शिक्षिता नारी है। उसका कर्त्तव्यबोध अत्यन्त प्रखर है।

(4) यशोधरा काव्य का उद्देश्य

यशोधरा के प्रणयन का एक उद्देश्य चाहे वह गौण ही क्यों न हो, बौद्ध सिद्धान्तों का खण्डन भी रहा है। तथागत के अनुभवों एवं मान्यताओं को कवि ने पुस्तक के आरम्भ में ही ‘सिद्धार्थ’ और ‘महाभिनिष्क्रमण’ शीर्षक उपखण्ड में रख दिया है। यशोधरा के शेष भाग में उन्हीं की समीक्षा-परीक्षा हुई है। ‘यशोधरा शीर्षक उपखण्ड की अवतारणा तो स्पष्टतः ‘महाभिनिष्क्रमण’ में प्रतिपादित विचारों के खण्डन के लिए ही हुई है।

(5) यशोधरा : एक उत्कृष्ट रचना

गुप्त जी ने ‘यशोधरा’ काव्य में मुख्यतः दो प्रकार की समसामयिकता आदर्शों के मामले में सिद्ध करनी चाही है और इसका अवकाश कथा की घटना-संयोजना में नहीं, चरित्रों के विकास में ढूंढ़ निकाला है। इस क्रम में पहली समसामयिकता नारी-व्यक्तित्व के मूल्यांकनों से सम्बद्ध है। उन्नीसवीं सदी का सम्पूर्ण उत्तरार्द्ध और बीसौं सदी का प्रथम-द्वितीय दशक भारतीय सामाजिक-राजनीतिक चेतना का पुनर्जागरण काल था। इस काल की सबसे बड़ी उपलब्धि नारी के उपेक्षित गौरव की स्वीकृति एवं व्यक्तित्वमहिमा को न्यायोचित अभिव्यक्ति थी। इस क्रम में सबसे पहले उसे कुत्सित प्रथाओं जैसे सती प्रथा, बाल-विवाह, देवदासी-प्रथा आदि से ऊपर उठाना और उसके विषय में प्रचलित हीन मान्यताओं का निराकरण है। यह कार्य राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द एवं महात्मा गाँधी द्वारा विशेषकर किया गया। इस नवजागरण का प्रभाव साहित्य पर भी पड़ा और कवीन्द्र रवीन्द्र ने ‘काव्येर उपेक्षिता’ शीर्षक निबन्ध लिखकर काव्य के प्रभावशाली कवियों द्वारा उपेक्षित स्त्रीचरित्रों की ओर जागरूक साहित्यकारों का ध्यान आकृष्ट किया। इस निबन्ध से प्रेरित होकर आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हिन्दी कवियों का और विशेषत: अपने प्रिय शिष्य श्री गुप्त जी का ध्यान आकृष्ट किया। गुप्त जी ने पहले तो ‘साकेत’ में उर्मिला देवी के चरित्र को प्रतिष्ठित एवं उजागर किया और तत्पश्चात् यशोधरा के चरित्रगौरव को आलोकित करने के लिए प्रस्तुत काव्य लिखा। इस प्रकार उनके द्वारा यह एक ऐसा दायित्व निभाया गया, जो समसामयिक तो था ही परमावश्यक भी था। उनकी कविदृष्टि से अनतिदूर दृष्टिगोचर होता देश का स्वातन्त्र्य भी ओझल न रहा और उन्होंने अनुभव किया कि स्वतन्त्र भारत में किस प्रकार की स्वाभिमानदीप्त, कर्त्तव्यभावनाप्रमुख, बालशिक्षापटु कुलवधुओं की अपेक्षा है। यशोधरा ऐसी ही कुलवधुओं का आदर्श प्रतिनिधित्व करती है।

(6) यशोधरा एवं कामायनी

‘यशोधरा’ की तरह ‘कामायनी’ का कथासूत्र भी अत्यन्त विरल है, पर इस विरलता के कारण अलग-अलग हैं। ‘यशोधरा’ प्रबन्धत्वयुक्त होकर भी बहुत कुछ खण्डकाव्य जैसा है, इसका अधिकांश भाग गीतों में निबद्ध है और इन गीतों का आयोजन यशोधरा के नारी व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों-पत्नी (अनुरागिनी), विरहिणी, जननी आदि रूपों को उजागर करने के लिए किया गया है। यही कारण है कि खण्डकाव्य की सीमाओं में रहने पर भी इसमें यशोधरा का सम्पूर्ण व्यक्तित्व उद्भासित हो उठा है।

(7) यशोधरा में वात्सल्य रस

हिन्दी में पहली बार प्रिय-वियोग की वेदना तथा वात्सल्य-भाव का उल्लास समन्वित होकर ‘यशोधरा’ में ही प्रकट हुआ है। यशोधरा का वात्सल्य शृंगार-वियोग से संपृक्त है, सम्पूर्णतः संपृक्त है। लोरी गा-गाकर राहुल को सुलाने वाली विरहिणी गोपा उसके सो जाने पर ही क्रन्दन करने का अवसर पा सकती है, जागृति में वह रोकर उसे नहीं रुला सकती —

तेरी साँसों का सुस्पन्दन,
मेरे तप्त हृदय का चन्दन।
सो, मैं करवू जी भर क्रन्दन,
सो, उनके कुल-नन्दन सो।
सो, मेरे अंचल-धन, सो॥

यहाँ दो भावों का समन्वय हुआ है और दोनों अपनी एक-दूसरे से विपरीत स्थिति में आकर समन्वित हुए हैं।

(8) श्रृंगार रस

‘यशोधरा’ का प्रमुख रस शृंगार है-शृंगार में भी केवल विप्रलम्भ,
संयोग का तो एकांताभाव है। शृंगार के अतिरिक्त ‘यशोधरा’ में करुण, शांत एवं वात्सल्य रस भी यथास्थान उपलब्ध हैं। करुण तो वस्तुतः विप्रलम्भ का ही अंग बनकर आया है, उसी को उद्बुद्ध करने के लिए। पुस्तक के आदि और अंत में शान्ति है। तात्पर्य यह है में कि जहाँ बुद्ध हैं, वहीं शान्ति है। यद्यपि कथा का पर्यवसान शान्त रस में हुआ है, तथापि मुख्य रस शृंगार ही है। यशोधरा जाया ही नहीं, जननी के रूप में आती है। राहुल के कारण वात्सल्य रस का अच्छा परिपाक हुआ है। लोरी के रूप में जो गीत अवतरित हुए हैं, वे वात्सल्य रस के सुन्दर निदर्शन हैं।

उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ‘यशोधरा’ काव्य का भाव पक्ष अत्यंत सशक्त, सरस तथा उद्देश्यपरक है | यशोधरा का जीवन वस्तुत: त्याग, प्रेम और मानवता रूपक प्रतीत होता है |

‘यशोधरा’ काव्य का कला पक्ष

‘यशोधरा’ की कलापक्षीय विशेषताएँ इस प्रकार हैं —

(1) भाषा

यशोधरा की भाषा शुद्ध खड़ीबोली है। इसमें खड़ी बोली का पर्याप्त
प्रौढ़ और कांतिमय रूप मिलता है। यह गीतिकाव्योपयुक्त मृदुल-मसृण है। दो-तीन गीत तो भाषा की दृष्टि से प्रथम कोटि के हैं। भारत-भारती की भाषा का उग्र ओज द्रष्टव्य है, तो यशोधरा की भाषा का ललित मार्दव। खड़ीबोली का परिमार्जित रूप गुप्त जी की ‘यशोधरा’ में मिलता है।

(2) छन्द

गुप्त जी के छन्दों की एक विशेषता है कि उनके छन्द प्रसंगानुकूल
बदलते रहे हैं। कवि ने वार्णिक और मात्रिक दोनों प्रकार के छन्दों का प्रयोग किया है, पर ‘यशोधरा’ के लगभग सभी छन्द मात्रिक हैं। इनमें गीतिका, ताटक, सरसी, रोला, हरिगीतिका, वीर और आर्या छन्द विशेष उल्लेखनीय हैं। ये सभी छन्द प्राचीन हैं। अत: छन्दों के प्रयोग में कवि प्राचीनतावादी है। यद्यपि गीतों की रचना में कवि प्राचीन छन्दविधान के बन्धन से अपने आपको स्वतन्त्र कर सका है, तथापि उसकी अधिकांश कविताएँ छन्द का बन्धन मानकर चली हैं। गुप्त जी व समस्त रचनाओं में सम्भवतः ‘यशोधरा’ ही एक ऐसी काव्य-पुस्तक है जिसमें उपरिलिखित तीनों प्रकार के छन्दों का सम्यक् प्रयोग हुआ है। सभी छन्द संयत और मात्राओं के अनुकूल हैं। जहाँ यशोधरा के मनोभाव बदले हैं, कवि ने छन्दों को भी बदल दिया है, अतः ये छन्द मनोभाव के अनुसार अपना रूप बदलते गये हैं।

(3) अलंकार योजना

‘यशोधरा’ में अलंकार योजना इस प्रकार है–

(क) रूपक अंलकार — जब उपमान और उपमेय का एक ही वस्तु या व्यक्ति पर आरोप किया जाता है, तो रूपक अलंकार होता है। गुप्त जी ने रूपक अलंकार का भी प्रयोग बहुलता से किया है। यशोधरा में रूपक अलंकार के अनेक उदाहरण मिलते हैं–

(i) जागी किसकी वाष्प राशि।

(ii) राग है सब मूछित आह्वान।

(iii) ग्रन्थ है जिनका जीवन दान।

(iv) मोड़ मसक है कसक हमारी और गमक है हूक।

(v) मेरा शिशु संसार यह दूध पिये परिपुष्ट हो।

(vi) जीर्ण तरी भूरिभार देखि पुरी ए री।

(vii) छेड़ो न लता के छाले उड़ जायेगी धूल।

(viii) जो मानस हँस सुनेगा और कौन-सी मुक्ति ?

मुक्ता फल निर्द्वन्द्व चुनेगा, चुन ले कोई शक्ति।


(ख) उपमा अलंकार –दो अलग-अलग व्यक्तियों अथवा वस्तुओं में समानता स्थापित करने में उपमा अलंकार होता है। गुप्त जी की रचनाओं में इस अलंकार का भी प्राधान्य मिलता है।

सती शिवा-सी तपस्विनी माँ, देख दिवा आ रही।
भर गम्भीर निज शून्य स्वयं ही उसको तुझ सी था रही ||

एक अन्य उदाहरण देखिए —

नर्म सहचर सा छाया री। मरण सुन्दर बन आया री।
सखि बसन्त से कहाँ गये वे, मैं सुषमा थी यहाँ रही।

(ग) मालोपमा अलंकार — जब एक ही उपमेय के अनेक उपमान दिये जाते हैं, तो मालोपमा अलंकार होता है। गुप्त जी ने इस अलंकार का प्रयोग केवल उन स्थानों पर किया है, जहाँ वे अधिक भावुक हो उठते हैं। निम्नांकित पंक्तियों में यशोधरा की दशा देखने योग्य है —

सिंहनी सी कानों में, योगिनी सी शैलों में,
शफरी सी जल में, विहंगिनी सी व्योम में,
जाती तभी और उन्हें, खोज लाती मैं |

यशोधरा के लिए ही ये सभी उपमान आये हैं। अत: यहाँ मालोपमा अलंकार है।

(घ ) समासोक्ति अलंकार — विषय का वर्णन करते समय जब अवर्ण्य (अप्रस्तुत) विषय की प्रतीती होती है, तो समासोक्ति अलंकार होता है। अपने पात्रों द्वारा जब गुप्त जी उनके मत का समर्थन कराना चाहते हैं, तो समासोक्ति अलंकार का प्रयोग करते हैं।

यशोधरा में महाभिनिष्क्रमण के समय सिद्धार्थ अपने मन का प्रतिपादन और वैदिक कर्मकाण्ड का खण्डन करते समय कह रहे हैं —

वह कर्म काण्ड ताण्डव विकास, वेदी पर हिंसा-हास-राम,

लोलुप-रसना का लोल-लास, तुम देखो ऋग, यजु और साम!

ओ क्षणभंगुर भव, राम राम!


यहाँ पर उनका वर्ण्य विषय है — वैदिक कर्मकाण्ड और अवर्ण्य है-बौद्ध धर्म। उनको विश्वास है कि उनके मार्ग का अनुसरण करने से उन्हें शान्ति मिल सकती है। अतः यहाँ पर समासोक्ति अलंकार हुआ।

(ङ) सन्देह अलंकार — जब समान वस्तु या व्यक्ति को देखने से उस व्यक्ति या वस्तु में किसी दूसरे व्यक्ति अथवा वस्तु का सन्देह हो जाता है, तो सन्देह अलंकार होता है। वियोगावस्था में रहने के कारण यशोधरा को प्रात:कालीन छटा दु:ख देती है। अत: उसके हृदय में निराशा रूपी अन्धकार छा जाता है। फलत: वह अस्थिर हो उठती है। उसके हृदय की इस अस्थिरता के कारण उसे प्रातः भी रात्रि के समान लगती है। इसलिये वह कह उठती है —

यह प्रभात या रात है घोर तिमिर के साथ।

नाथ कहाँ हो हाय तुम! मैं अहवट के हाथ ॥

(च) स्मरण अंलकार — किसी वस्तु या व्यक्ति को देखकर जब किसी दूसरे का स्मरण हो जाता है, तो स्मरण अलंकार कहलाता है। यशोधरा को अपने महल के उद्यान के कुंजों और वहाँ के वसन्तकालीन सौन्दर्य को देखकर एकाएक सिद्धार्थ की याद आ जाती है और वह कहने लगती है —

उनका यह कुंज कुटीर वहीं झड़ता उड़ अंशु-अबीर जहाँ,

अलि कोकिल, कीर शिखी सब है सुन चातक की रट पीव कहाँ?

अब भी साज समाज वही तब भी सब आज अनाथ यहाँ,

सखि, जा पहुँचे मुध संग कहीं यह अंध सुगन्ध समीर कहाँ?

(छ) उत्प्रेक्षा अलंकार — जब उपमेय में उपमान की संभावना की जाती है, तो उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। हिन्दी कवियों ने इस अलंकार का प्रयोग बहुलता से किया है। गुप्त जी की रचनाओं में भी इस अलंकार का प्रयोग बहुतायत से मिलता है | यथा —

स्वामी के सम्वाद फैल कर, फूल-फूल में फूटे।

उन्हें खोजने को ही मानो नूतन निर्झर छूटे॥

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर कह सकते हैं कि ‘यशोधरा’ नि:सन्देह एक उत्कृष्ट काव्यकृति है, जिसकी स्वस्थ एवं शुभ नारी-भावना हिन्दी में स्वत: अनूठी , वरेण्य एवं श्रेयस्कर है। यत्र-तत्र आदर्शातिरेक ने सहज भावधारा को व्यवधान पहुँचाये हैं, पर कुल मिलाकर यह एक श्रेष्ठ कृति न सही एक स्तरीय कृति अवश्य है।

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